शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

५८. गृहिणी और चपातियाँ

गृहिणी बना रही है चपातियाँ,
जो फूल उठती हैं हर कोने से,
बन जाती हैं नर्म,मुलायम,जायकेदार.

कभी-कभी जब कहीं खो जाती है गृहिणी,
तो फट जाती हैं फूलती हुई चपातियाँ,
चिपक जाते हैं उनके पेट पीठ से,
फिर कभी नहीं फूलतीं चपातियाँ.

गृहिणी सोचती है,क्यों नहीं फटती वह
इन चपातियों की तरह,
न जाने कितनी जगह है उसके अंदर 
कि वह  फूलती ही चली जाती है.

कभी-कभी गृहिणी को लगता है,
बस बहुत हुआ, अब और नहीं,
अब तो वह फट के ही मानेगी,
पर वह फट नहीं पाती,
थोड़ा और फूल के रह जाती है.

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

५७.डाकिया



अरे निगोड़े डाकिए,
आजकल तुम देर से क्यों आते हो?
क्या घोड़े बेचकर सोते रहते हो 
या अफीम खाकर पड़े रहते हो?

तुम्हारी साईकिल धीरे क्यों चलती है,
क्या टायरों में हवा कम हो गई है?
नुक्कड़ पर आते ही बीड़ी क्यों सुलगाते हो,
घर से फूंककर क्यों नहीं आते?

थैला भर चिट्ठियाँ लाते हो,
एक मुझे देने में जान क्यों निकलती है?
क्यों तुम्हें ख्याल नहीं आता 
कि सुबह से कोई तुम्हारे इंतज़ार में है?

कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ तो गड़बड़ है,
मैं डाकबाबू से शिकायत करूंगी,
तुमसे अच्छा तो वो पुराना डाकिया था,
जो कभी-कभार उनका खत तो लाता था.


रविवार, 18 नवंबर 2012

५६. मेरे अलावा

आजकल जिससे भी मिलता हूँ,
उसमें कमी नज़र आती है मुझे,
किसी का चेहरा-मोहरा नहीं जंचता
तो किसी की चाल-ढाल,
किसी का चाल-चलन चुभता है,
तो किसी के बोलने का अंदाज़,
किसी के मुंह की दुर्गन्ध नहीं सुहाती,
तो किसी के पसीने की बदबू.

आजकल जल्दी उकता जाता हूँ मैं,
बना नहीं पाता किसी को भी अपना,
भागता फिरता हूँ हर किसी से,
बस खुद के साथ रहता हूँ मैं.

आजकल बहुत परेशान हूँ मैं,
यही सोचता रहता हूँ 
कि बाकी सब वैसे क्यों नहीं 
जैसा मैं हूँ,
मेरे अलावा ऐसा कोई क्यों नहीं 
जो मुझे अच्छा लगे.

शनिवार, 10 नवंबर 2012

५५. इस बार की दिवाली

इस बार दिवाली पर अंधेरों में चलें.

उन अंतड़ियों से मिलें,जो कुलबुलाती हैं रोटी को,
उन आँखों से मिलें, जो घबराती हैं रौशनी से,
उन कानों से मिलें, जो तरसते हैं संगीत को,
उन होठों से मिलें, जो थरथरा कर रह जाते हैं.

इस बार दिवाली पर झुकी गर्दनों से मिलें,
उन जुबानों से मिलें, जो उगल न पाईं ज़हर,
उन रोंगटों से मिलें, जो खड़े रहे हमेशा,
उन दांतों से मिलें,जो कटकटा नहीं पाए.

इस बार अनउगी मूंछों से मिलें,
उन बाजुओं से मिलें, जो वज़न से डरते हैं,
उन पाँओं से मिलें, जो पहुंचे नहीं मंजिल तक,
उन दिलों से मिलें, जो डर-डर कर धड़कते हैं.

उन उँगलियों से मिलें, जो उठीं खुद की तरफ,
उन घुटनों से मिलें, जो कराहते रहे दर्द से,
उन आंसुओं से मिलें, जो बह नहीं पाए,
उन मुस्कराहटों से मिलें, जो होठों तक नहीं पंहुचीं.

इस बार चलती-फिरती लाशों से मिलें,
जिंदगी ढो रहे कंकालों से मिलें,
उन चेहरों से मिलें,जिन्होंने ओढ़ी है मुस्कराहट,
उन निशानों से मिलें, जो चोट से बने हैं.

इस बार दिवाली पर अंधेरों में चलें,
साथ में ले चलें-
उम्मीद के दिए,
हिम्मत की बातियाँ,
इरादों का तेल 
और प्यार की माचिस,
देखते हैं, अंधेरों में कितने दिए जलते हैं.

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

५४.तान

कान्हा, कब से खामोश है तुम्हारी बांसुरी,
कोई मीठी तान छेड़ो ना,
वन-उपवन,नदी-तालाब छोड़ो,
अब बस्तियों में आओ ना.

इंतज़ार में हैं लाखों देवियाँ,
जिनके कानों को झिड़कियों की
आदत सी पड़ गई है,
तिरस्कृत,उपेक्षित,अपमानित-
उनके कानों में थोड़ा शहद घोलो ना.

कान्हा, एक ऐसी तान छेड़ो
कि जाग उठे उनकी जीजिविषा,
अंगड़ाई ले उनमें कोई आशा,
कि खून खौल उठे उनका.

एक तान जो फूँक दे उनमें नई जान,
जगा दे उनका आत्म-सम्मान,
भगा दे सारा डर, सारी दुविधा,
करा दे उनकी खुद से पहचान.

बहुत देर हो गई कान्हा,
अब बस दौड़े चले आओ,
रख लो अपने होठों पर मुरली
और छेड़ दो एक ऐसी तान 
कि सब-की-सब लांघ जायं देहरी,
कि सब-की-सब राधा बन जायं.