शनिवार, 27 जनवरी 2024

७५४. हवा से विनती

 


हवा के झोंके, चले आओ,

उड़ा लाओ बादल बरसनेवाले,

यहाँ सब बैठे हैं इंतज़ार में. 


सूख गई हैं सारी नदियाँ,

पत्थर-से हो गए हैं उनके तल,

सूखे पत्ते छाती से चिपकाए 

निढाल से खड़े हैं पेड़. 


मारे प्यास के अधमरी,

पस्त सी पड़ी है ज़मीन,

जी-भर भीगने की आस में 

बड़े हो रहे हैं नन्हे-मुन्ने।


भर भी दो नदियाँ -बावड़ियाँ,

सींच भी दो प्यासे पेड़ों को,

पिला भी दो जी-भर के पानी, 

मिटा दो ज़मीन की प्यास,

महसूस करने दो मासूमों को 

नन्ही-नन्ही बारिश की बूँदें

अपनी मुलायम हथेलियों पर. 


अब तो रहम खाओ,

बादलों को साथ लेकर 

हवा के झोंके, चले आओ. 



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