शुक्रवार, 24 मार्च 2017

२५३. मैं और वो

शहर की सुंदर लड़की,
तेज़-तर्रार,
नाज़-नखरेवाली,
साफ़-सुथरी,
सजी-धजी,
शताब्दी ट्रेन की तरह 
सरपट दौड़ती.

मैं, गाँव का लड़का,
सीधा-सादा, भोला-भाला,
पटरी पर खड़ा हूँ,
जैसे कोई पैसेंजर ट्रेन.

उसे मुझसे आगे निकलना है.

4 टिप्‍पणियां:

  1. वही नहीं आज हरकोई ज़िंदगी में आगे निकलना चाहता है ,सुंदर !

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  2. आगे निकलने की चाहत में कभी - कभी हम इतना आगें निकल जाते हैं कि अपने पीछे छूट जाते हैं। मज़िंल पाकर भी सफ़र अधूरा- अधूरा लगता हैं। फ़िर लगता हैं काश हम उसके साथ चले होते।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को

    "राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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