बचपन में पिता ने कहा,
'चुप रहो',
जवानी में पति ने कहा,
'चुप रहो',
बुढ़ापे में बेटे ने कहा,
'चुप रहो',
हर किसी ने कहा,
'चुप रहो',
उसके बोलने का समय
कभी आया ही नहीं.
एक दिन वह मर गई,
किसी ने नहीं पूछा उससे,
'तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?'
कोई पूछ भी लेता,
तो वह क्या जवाब देती,
उसे तो बोलना आता ही नहीं था.
हृदयस्पर्शी रचना..
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 25 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-१२-२०२०) को 'यादें' (चर्चा अंक- ३९२७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
मर्मस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएं–सत्य कथन आपका
जवाब देंहटाएंइसलिए मैं सदा कहती हूँ
गऊ सी मूक बेटियों को
समय रहते चेत जाओ
बोलो कि बोलना जरूरी है
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जवाब देंहटाएंनारी जीवन की कडवी सच्चाई है ...
जवाब देंहटाएंमार्मिक ! पर शायद अब समय बदल रहा है।
जवाब देंहटाएंमर्माघाती ।
जवाब देंहटाएंवाकई..कड़वी सच्चाई है एक स्त्री के जीवन की। बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना। उम्मीद है परिवर्तन शीघ्र होगा। सादर शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअद्भुत!
जवाब देंहटाएंपर समय अब बदलाव ले चुका वो बोलती भी है और औरों को चुप भी करवाती है।
मार्मिक एवं सच्चाई को जताती हुई बेहतरीन रचना,
जवाब देंहटाएंअबला जीवन हाय तेरी यही कहानी
निःशब्द करती सशक्त रचना...
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