शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

२९५. तुम्हारे ख़त


तुम्हारे प्रेमपत्र सहेज के रखे हैं मैंने,
सालों से उन्हीं को पढता हूँ बार-बार,
अपनी लिखावट में दिखाई पड़ती हो तुम,
लगता है जैसे तुमसे मुलाकात हो गई.

अब पीले पड़ गए हैं ये काग़ज़,
उजड़-सी गई है सियाही इनकी,
पर किसी भी तरह बचाना है इन्हें,
ज़िन्दा रखना है इन ख़तों को उम्रभर.

पत्र तो अब भी आते हैं तुम्हारे,
पर मेल से, क़रीने से छपे अक्षरों में,
जिनमें तुम्हारी वह झलक नहीं मिलती,
जो तुम्हारी बेतरतीब लिखावट में है.

शनिवार, 20 जनवरी 2018

२९४. जीवन और मृत्यु

नई जगह,
नई डगर,
चारो ओर छाया है 
घनघोर अँधेरा,
कहीं कोई किरण नहीं,
न ही किरण की उम्मीद,
कहीं कोई आवाज़ नहीं,
परिंदे भी चुप हैं.

अब आगे जाऊं या पीछे,
दाएं जाऊं या बाएँ,
ख़तरा किधर है, पता नहीं,
मंजिल किस ओर है, क्या मालूम.

तो क्या मैं रुक जाऊं?
बैठ जाऊं?
इंतज़ार करूँ अनंत तक रौशनी का?
नहीं, यह संभव नहीं,
भले कुछ भी हो जाय,
भले मैं लड़खड़ा जाऊं,
गिर जाऊं, मर जाऊं,
मुझे चलना ही है,
चलना ही जीवन है
और रुकना मृत्यु. 

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

२९३. सर्द सुबह से दो-दो हाथ


बड़ी सर्द सुबह है आज,
न जाने कहाँ है सूरज,
कोई उम्मीद भी नहीं
कि वह उगेगा,
लगता है, छिप गया है कहीं,
डर गया है सूरज 
इस सर्द सुबह से.

बहुत हो गया इंतज़ार,
कब तक रहेंगे किसी और के भरोसे,
कब तक बैठेंगे 
हाथ पर हाथ धरे,
अब ख़ुद ही बनना होगा सूरज,
ख़ुद ही पैदा करनी होगी ऊष्मा.

समय आ गया है 
कि कमर कस लें,
भिड़ जायँ इस सर्द सुबह से,
फिर हार हो या जीत,
जो हो, सो हो.

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

२९२. सोना बंद करो

फुटपाथ पर सोनेवालों,
तुम मकानों में क्यों नहीं सोते?
मकान नहीं, तो झुग्गियों में,
वह भी नहीं, तो पेड़ों पर,
पानी में, हवा में - कहीं भी.

फुटपाथ पर सोनेवालों,
तुम सोते ही क्यों हो?
जब सोने की जगह नहीं,
तुम होते ही क्यों हो?

क्या तुम नहीं जानते 
कि फुटपाथ पर सोना ख़तरनाक है,
कानूनन अपराध है?

नहीं सोना कानूनन अपराध नहीं है,
इसमें ख़तरा भी कम है,
इसलिए अपने भले के लिए 
फुटपाथ पर सोनेवालों,
सोना बंद करो.