बहुत दूर से,
बहुत देर से,
बहुत तकलीफ़ सहकर
तुम आख़िर पहुँच ही गई
मेरे दरवाज़े तक.
मैंने भी लगभग
खुला छोड़ रखा था दरवाज़ा,
तुम दस्तक देती,
तो खुल जाता अपने आप,
पर दरवाज़े तक आकर
तुम वापस लौट गई,
मैंने भी आहट सुन ली थी
तुम्हारे आने की,
पर दस्तक के इंतज़ार में रहा.
हम जब एक लम्बा सफ़र
तय कर लेते हैं,
तो एक आख़िरी कदम बढ़ाना
इतना मुश्किल क्यों हो जाता है,
या फिर आख़िरी कदम
वही क्यों नहीं बढ़ा लेता,
जिसने कोई सफ़र किया ही न हो.
बहुत देर से,
बहुत तकलीफ़ सहकर
तुम आख़िर पहुँच ही गई
मेरे दरवाज़े तक.
मैंने भी लगभग
खुला छोड़ रखा था दरवाज़ा,
तुम दस्तक देती,
तो खुल जाता अपने आप,
पर दरवाज़े तक आकर
तुम वापस लौट गई,
मैंने भी आहट सुन ली थी
तुम्हारे आने की,
पर दस्तक के इंतज़ार में रहा.
हम जब एक लम्बा सफ़र
तय कर लेते हैं,
तो एक आख़िरी कदम बढ़ाना
इतना मुश्किल क्यों हो जाता है,
या फिर आख़िरी कदम
वही क्यों नहीं बढ़ा लेता,
जिसने कोई सफ़र किया ही न हो.
दिनांक 07/11/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
वाह्ह्स...मनोभावों का हृदयस्पर्शी चित्रण।बहुत सुंदर रचना ओंकार जी।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-11-2017) को
जवाब देंहटाएंसमस्यायें सुनाते भक्त दुखड़ा रोज गाते हैं-; 2781
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रिश्तों में, पहले तुम या पहले तुम, अगर हो तो लिश्ता खत्म ही समझें। खुद से बाहर निकलकर किसी का होना पड़ता है रिश्ता निभाने के लिए।
जवाब देंहटाएंमन की कशिश में लिपटी सुंदर कविता।
कई बार तो ज़िंदगी बीत जाती है उस आख़री क़दम की इंतज़ार में ... बहुत सुंदर ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंकुछ तुम बढ़ो, कुछ हम बढ़ें, थामें हाँथ आगे चलें
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता,लाज़वाब अभिव्यक्ति
सादर
वाह
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंसच कहा है ... कई बार एक क़दम बहुत मुश्किल होता है ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएं