शनिवार, 2 सितंबर 2017

२७५. बूढ़ा चिड़िया से



चिड़िया, क्यों चहचहा रही हो
मेरी खिड़की पर बैठ कर?
क्यों जगा रही हो मुझे 
सुबह-सवेरे?
कौन है जिसे इंतज़ार है
मेरे जगने का?
कौन सा काम रुक जाएगा 
मेरे सोए रहने से?

चिड़िया, तुम्हें नहीं मालूम 
कि अकेले-अकेले दिन काटना 
कितना मुश्किल होता है,
कितनी चुभती है 
अनदेखी अपनों की,
कितना सालता है 
पल-पल का अपमान.

चिड़िया, तुम जो दिनभर उड़ती रहती हो,
ख़ुशी से चहचहाती रहती हो,
तुम्हें क्या मालूम 
कि चुपचाप बैठे रहने से 
चुपचाप सोए रहना ज़्यादा अच्छा है.

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-09-2017) को "आदमी की औकात" (चर्चा अंक 2717) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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