शनिवार, 30 सितंबर 2017

२७९. समीक्षा

सुन्दर शब्द चुने हैं तुमने,
खूबसूरती से सजाया है उन्हें,
लय का ध्यान रखा है पूरा,
पर कवि, मुझे नहीं लगता 
कि तुमने जो लिखा है,
उसे कविता कहा जाना चाहिए.

कवि, अगर अपनी कविता में तुम
किसी आम आदमी की दास्तान,
किसी मजदूर की व्यथा,
किसी किसान की वेदना,
किसी गृहिणी का दुःख
या किसी बच्चे की मुस्कराहट का ज़िक्र करते,
तो भी मुझे पक्का यकीन नहीं है
कि तुम जो लिखते, वह कविता होती.

कवि,कविता के लिए एक ही कसौटी है मेरी,
समीक्षा का एक ही मानक है मेरा,
तुम्हारे लिखे को  मैं 
कविता तभी मानूंगा,
जब वह मेरे दिल को छू ले.

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

२७८. पेड़




क्यों काट रहे हो मुझे?

मैं जो चुपचाप खड़ा रहता हूँ 

अपनी जगह पर,
न सोता हूँ, न बैठता हूँ,
हिलता भी नहीं अपनी जगह से,
क्या दुश्मनी है तुम्हारी मुझसे?

मेरी डालियों पर बने 
घोंसलों को देखो,
जिनमें मासूम चूज़े छिपे बैठे हैं,
उन पंछियों को देखो,
जिनका मैं आसरा हूँ,
उन कीड़ों-मकोड़ों, 
उन जानवरों को देखो,
जो मेरे सहारे ज़िन्दा हैं,
क्या दुश्मनी है तुम्हारी उनसे?

मेरे कोमल पत्तों को देखो,
फूलों और फलों को देखो,
जो तुम्हारे काम आते हैं,
ज़हरीली हवा के बारे में सोचो,
जो मैं पी लेता हूँ,
ताज़ी हवा के बारे में सोचो,
जो मैं तुम्हें देता हूँ,
मेरी छाया को देखो,
जिसमें तुम सुस्ता लेते हो.

मुझे काटने से पहले 
कम-से-कम इतना ही बता दो 
कि तुम्हारी  ख़ुद से दुश्मनी क्या है?

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

२७७. मदद

मैं सोया हुआ हूँ,
पर साँसें चल रही हैं,
दिल धड़क रहा है,
रक्त शिराओं में बह रहा है.

मैं सोया हुआ हूँ,
पर ये सब जाग रहे हैं,
काम पर लगे हुए हैं,
ताकि मैं सो भी सकूं,
ज़िन्दा भी रह सकूं.

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

२७६. पिता

तुम्हारे जाने के बाद मैंने जाना 
कि कितना चाहता था मैं तुम्हें.
जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता तो कह ही देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता 
अपराध-बोध से मुक्त.

ऐसा क्यों होता है 
कि एक ज़िन्दगी गुज़र जाती है
और हमें इतना भी पता नहीं चलता 
कि हम किसको कितना चाहते हैं.

शनिवार, 2 सितंबर 2017

२७५. बूढ़ा चिड़िया से



चिड़िया, क्यों चहचहा रही हो
मेरी खिड़की पर बैठ कर?
क्यों जगा रही हो मुझे 
सुबह-सवेरे?
कौन है जिसे इंतज़ार है
मेरे जगने का?
कौन सा काम रुक जाएगा 
मेरे सोए रहने से?

चिड़िया, तुम्हें नहीं मालूम 
कि अकेले-अकेले दिन काटना 
कितना मुश्किल होता है,
कितनी चुभती है 
अनदेखी अपनों की,
कितना सालता है 
पल-पल का अपमान.

चिड़िया, तुम जो दिनभर उड़ती रहती हो,
ख़ुशी से चहचहाती रहती हो,
तुम्हें क्या मालूम 
कि चुपचाप बैठे रहने से 
चुपचाप सोए रहना ज़्यादा अच्छा है.