मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

१५१. आनेवाले साल से

नए साल,
क्यों खटखटा रहे हो दरवाज़ा,
क्यों अधीर हो रहे हो तुम,
इतनी भी जल्दी क्या है तुम्हें
पुराने साल को भगाने 
और खुद अंदर आने की. 

कौन सा तीर मार लोगे तुम,
पहले भी बहुत साल आए 
और यूँ ही गुज़र गए 
बिना कुछ कहे, बिना कुछ किए,
फिर मैं कैसे मान लूँ 
कि तुम उनसे अलग हो ?

सुनो, नए साल,
तुमको तो आना ही है,
वैसे ही जैसे पुराना साल आया था,
मैं चाहूँ भी तो तुम्हें रोक नहीं सकता,
पर तुम्हारा स्वागत भी नहीं कर सकता।

हाँ,तुमसे इतना वादा ज़रूर है 
कि अगर तुमने कुछ कर दिखाया 
तो अगले साल तुम्हें 
बहुत शान से विदा करूँगा.  

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

१५०. असर

मेरे गाँव में अब स्कूल बंद है। 

मांओं ने कह दिया है 
बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे,
बच्चे भी डरे-सहमे हैं
कि गए तो लौटेंगे या नहीं. 

बेकार बैठे हैं टीचर,
खाली पड़ी हैं मेज -कुर्सियां,
स्लेट पर अब नहीं मिलता 
चॉक की लिखाई का कोई निशान।

यहाँ की दीवारें खामोश हैं
और दरवाज़े गुमसुम,
नहीं सुनती अब यहाँ 
अजान-सी कोई मासूम हँसी,
अब तो कबूतरों ने भी 
कहीं दूर बना लिए हैं बसेरे. 

पेशावर की घटना के बाद 
मेरे गाँव का स्कूल बंद है,
दरअसल पाकिस्तान  में कुछ भी होता है,
तो मेरे यहाँ उसका बहुत असर होता है. 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

१४९. दुविधा



लहरें मचल-मचलकर आती हैं,
किनारे को भिगोकर 
फिर समंदर में लौट जाती हैं,
पर उनका मन नहीं भरता,
किनारे से मिलने की चाह 
उन्हें फिर से खींच लाती है. 

अनवरत चलता रहता है 
यह आने-जाने का सिलसिला,
बस लहरों की ऊर्जा 
कभी कम  हो जाती है,
तो कभी ज़्यादा.

मुझे समझ नहीं आता 
कि लहरें तय क्यों नहीं कर लेतीं 
कि उन्हें क्या करना है 
आना है या नहीं, 
बंद क्यों नहीं कर देतीं 
बार-बार आना 
और आकर लौट जाना. 

मैं आज तक नहीं समझ पाया  
कि आखिर प्यार में 
इतनी दुविधा क्यों होती है. 

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

१४८. छुपम-छुपाई

तुम्हें याद हैं न 
वे बचपन के दिन, 
जब हम साथ-साथ खेला करते थे,
अजीब-अजीब से,
तरह-तरह के खेल-
खासकर छुपम-छुपाई. 

मैं कहीं छिप जाता था 
और तुम आसानी से 
मुझे खोज निकालती थी.

मेरे छिपने की जगह 
कितनी भी मुश्किल क्यों न हो,
तुम्हें पता चल ही जाता था,
न जाने कैसे,
मुझे आज तक पता नहीं चला. 

न कपड़ों की सरसराहट,
न कोई बू, न खुश्बू ,
पर तुम हर बार मुझ तक  
पहुँच ही जाती थी.

सुनो, मुझे तब से तुम पर 
बहुत भरोसा है. 
अगर कभी ऐसा हो जाय 
कि मैं कहीं खो जाऊं 
और खुद को ढूंढ न सकूँ 
तो तुम आओगी न?

मैं जानता हूँ 
कि तुम मुझे ज़रूर खोज लोगी 
और कहोगी,'लो, हमेशा की तरह 
मैंने तुम्हें खोज लिया,
अब सम्भालो खुद को
और कभी ऐसी जगह न छिपना 
कि मुझे भागकर आना पड़े,
तुम्हें ढूंढना पड़े,
ताकि तुम फिर खुद से मिल सको'. 









शनिवार, 6 दिसंबर 2014

१४७. नाविक से


नाविक, बीच समंदर में 
किनारे से दूर,
अपनी नाव में एकाकी,
क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?

जब लहरों के बीच 
तुम्हारी नाव डगमगाती है,
तुम गीत कैसे गा लेते हो ?
भीषण तूफ़ान की आशंका से 
तुम्हारी घिग्गी क्यों नहीं बँधती ?

नाविक, मैं किनारे पर खड़ा हूँ,
लहरों से बहुत दूर,
समंदर में कभी उतरे बिना ही 
डर से काँपता रहा हूँ,
पर अब सब बदलना चाहता हूँ,
तुम जैसा बनना चाहता हूँ. 

नाविक, इस बार वापस आओ,
तो मुझे भी साथ ले जाना
और छोड़ देना वहां,
जहाँ से किनारा दिखाई नहीं देता.