रविवार, 20 अप्रैल 2014

१२३. आकाश


जितना तुम्हें दिखता है,
आकाश सिर्फ़ उतना ही नहीं है.

आकाश तो बहुत विशाल है,
बहुत सुन्दर,विविधता से भरा,
वह कभी कहीं नहीं जाता,
हमेशा वहीँ रहता है,
बस तरह-तरह के रंग दिखाता है,
कभी नीला,कभी लाल,कभी सफ़ेद
और कभी-कभार इन्द्र-धनुषी.

कभी उसपर सितारे बिखर जाते हैं,
कभी चाँद निकल आता है,
कभी सूरज चमक उठता है,
कभी बादल छा जाते हैं.

मैं सच कह रहा हूँ,
आकाश वास्तव में ऐसा ही है,
कभी दीवारों से बाहर निकलो,
कभी खुले में आओ, तो जानो 
कि जिसे तुम पूरा आकाश समझते थे,
वह तो उसका एक छोटा सा टुकड़ा था.

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

१२२. पेड़ पथिक से



तुम्हारे आने की खबर सुनकर 
लो, मैंने विदा कर दिया पतझड़,
समय से पहले बुला लिया वसंत,
कोमल हरे पत्ते ओढ़ लिए,
बिछा दी फूलों की चादर.

पथिक, तुम्हारे काम, तुम्हारे श्रम,
तुम्हारी सेवा-भावना को सलाम,
मंज़िल तक पहुँचने के तुम्हारे निश्चय,
तुम्हारे दृढ संकल्प को सलाम.

बहुत दूर से आ रहे हो तुम,
बहुत दूर जाना है तुम्हें,
थोड़ी देर को भूल जाओ सब कुछ,
थोड़ी देर सुस्ता लो मेरी छांव में,
पथिक, मुझ पर उपकार करो,
मेरा होना सार्थक करो.

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

१२१. लौ


इस लौ में सबकी चमक है.

किसी मुस्लिम कुम्हार ने 
इस मिट्टी को गूंधा है,
फिर चाक पर चढ़ाकर 
दिए का आकार दिया है.

किसी सिख ने इसमें 
आकंठ तेल भरा है,
किसी ईसाई ने मेहनत से 
इसकी बाती बनाई है,
फिर किसी हिंदू ने इसे
प्रज्जवलित किया है.

आसान नहीं होता 
अँधेरे को दूर भगाना,
जब सब मिलते हैं,
तब जाकर लौ जलती है.