गृहिणी बना रही है चपातियाँ,
जो फूल उठती हैं हर कोने से,
बन जाती हैं नर्म,मुलायम,जायकेदार.
कभी-कभी जब कहीं खो जाती है गृहिणी,
तो फट जाती हैं फूलती हुई चपातियाँ,
चिपक जाते हैं उनके पेट पीठ से,
फिर कभी नहीं फूलतीं चपातियाँ.
गृहिणी सोचती है,क्यों नहीं फटती वह
इन चपातियों की तरह,
न जाने कितनी जगह है उसके अंदर
कि वह फूलती ही चली जाती है.
कभी-कभी गृहिणी को लगता है,
बस बहुत हुआ, अब और नहीं,
अब तो वह फट के ही मानेगी,
पर वह फट नहीं पाती,
थोड़ा और फूल के रह जाती है.
जो फूल उठती हैं हर कोने से,
बन जाती हैं नर्म,मुलायम,जायकेदार.
कभी-कभी जब कहीं खो जाती है गृहिणी,
तो फट जाती हैं फूलती हुई चपातियाँ,
चिपक जाते हैं उनके पेट पीठ से,
फिर कभी नहीं फूलतीं चपातियाँ.
गृहिणी सोचती है,क्यों नहीं फटती वह
इन चपातियों की तरह,
न जाने कितनी जगह है उसके अंदर
कि वह फूलती ही चली जाती है.
कभी-कभी गृहिणी को लगता है,
बस बहुत हुआ, अब और नहीं,
अब तो वह फट के ही मानेगी,
पर वह फट नहीं पाती,
थोड़ा और फूल के रह जाती है.
कभी-कभी गृहिणी को लगता है,
जवाब देंहटाएंबस बहुत हुआ, अब और नहीं,
अब तो वह फट के ही मानेगी,
पर वह फट नहीं पाती,
अच्छे प्रतीक के माध्यम से आपने नारी की स्थिति को प्रकट किया
इतनी सुंदर कविता पर 'कोई टिप्पणी नहीं' पढ़ कर मेरा मन भी किंचित व्यथित हुआ
जवाब देंहटाएंपरंतु मित्र आप इस अच्छे काम को ज़ारी रखिएगा, मेरे जैसे प्यासे बटोही के लिये ऐसी पोस्ट्स अमृत समान होती हैं
ख़ुश रहें, मस्त रहें
वाह ... अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुन्दर विंब ...ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंगृहणियां जो हैं ...
जवाब देंहटाएंपता है फाँट गयीं तो घर फट जायगा ... सहती रहती हैं इसलिए ...
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