रविवार, 28 अगस्त 2011

2.चोट  

आओ,तुम्हें वह चोट दिखा दूं ,
शांत कर दूं  तुम्हारी जिज्ञासा,
सब कुछ बता दूं साफ़ साफ़.

किसने दी,कब दी,क्यों दी,
कितनी गहरी है,जांच लेना तुम,
हो सके तो दवा भी कर देना.

पर कुछ मत पूछना 
उन गहरी चोटों के बारे में,
जो मैंने खुद को पहुंचाई हैं
या जो मुझे अपनों से मिली हैं.

अपनों की पहुंचाई
या नासमझी में लगी चोट को
छिपाना ही बेहतर है
इलाज कराने से उसे
सेना ही बेहतर है.














सोमवार, 15 अगस्त 2011

१. चली जाना 

जब आ ही गई हो
तो कुछ देर साथ चलो.

लो, मैंने छोड़ दिया तुम्हारा हाथ,
त्याग दिया मोह छुअन का,
बंद कर ली दोनों आँखें,
लालच क्या करना दीदार का ?

मुंह भी  रखूंगा बंद,   
परेशां न हो तुम
उन तमाम बातों से 
जो तुम्हें बेतुकी जान पड़े.

चलो, सांस भी नहीं लूँगा,
तुम्हारे बदन की खुशबू भी
नहीं पहुँच पायेगी मुझ तक.

अब तो ठीक है न,
चलो,जल्दी चलो,
बिना सांस के कब तक जिऊँगा,
जब गिर पडूँ तो लौट जाना.