रेल की पटरियाँ
न जाने कब से बिछी हैं
अपनी जगह पर,
इनपर से रोज़ गुज़रती हैं
बहुत सी रेलगाड़ियाँ.
कभी-कभार कोई आता है,
इनके पेंच कस जाता है,
इनपर हथौड़ा मार जाता है,
फिर भी ये डटी रहती हैं.
दर्द सहकर भी अपनी जगह
पड़ी रहती हैं रेल की पटरियाँ,
उन्हें महसूस करना होता है
यात्रियों को उनकी
मंज़िल तक पहुँचाने का सुख.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को "कंकड़ देते कष्ट" (चर्चा अंक- 3963) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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वाह👌
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंकभी-कभार कोई आता है,
जवाब देंहटाएंइनके पेंच कस जाता है,
इनपर हथौड़ा मार जाता है,
फिर भी ये डटी रहती हैं.
बहुत ही अच्छी कविता बधाई और शुभकामनायें
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंगहन भाव
बहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंमंज़िल तक पहुँचाने का सुख''
जवाब देंहटाएंकिसी आम के वश का है भी नहीं
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंवाह !!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर रचना ।