बहुत आराम में हूँ मैं इन दिनों
अपनी मर्ज़ी का मालिक,
जब चाहे सोऊँ, जब चाहे जागूँ.
बस एक ही चीज़ खटकती है
कि अब दिनों में कोई फ़र्क़ नहीं रहा,
जैसा इतवार, वैसा सोमवार,
सारे दिन एक जैसे.
न सोमवार सुबह की घबराहट,
न शुक्रवार शाम की राहत,
बस एक सीधा- सपाट रास्ता है,
जिस पर चलते जाना है.
इन दिनों मैं उधेड़बुन में हूँ,
ऐसा कुछ क्यों न करूँ
कि यह सीधा-सपाट रास्ता
थोड़ा ऊबड़-खाबड़ हो जाय.
मैं थोड़ा गिरूं,
थोड़ा डरूँ,
थोड़ा थकूँ,
महसूस करूँ
कि मेरा सफ़र
अभी ख़त्म नहीं हुआ है.
जी ओंकार जी, रिटायर होने के बाद बहुत लोग गुजरते होंगे इस ऊहापोह से।जीवन में नौकरी का रोमांच एक अनुशासन में ढाल्रता है इन्सान को।इसके बाद रोमांचविहीन रिक्तता जरुर कचोटती होगी मन को! आपकी सरल और सहज अभिव्यक्ति हृदयस्पर्शी है 🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 अप्रैल 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सफर खत्म नहीं होते,
जवाब देंहटाएंपैदा होते जाते हैं
पड़ाव दर पड़ाव
बनते हैं नए रास्ते
पगडंडियाँ
जिन पर साथ चलते हैं
कुछ दोस्त
बन जाती हैं
राहें
सफर
समाप्त नहीं होते
विराम सदा
अल्पविराम होता है।
चिंतनपरक हृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएं