शनिवार, 3 सितंबर 2016

२२६. आसमान में अक्स

चाँद, कितने भोले हो तुम,
झील में घुसकर सोच रहे हो 
कि छिप जाओगे.

छिपे भी तो कहाँ ? पानी में ?
छिपने की सही जगह तो तलाशते,
अपनी आभा ही कम कर लेते,
आभा कम हो, तो छिपना आसान होता है.

यहाँ तो तुम साफ़ दिख रहे हो,
लगता है, तुमने पानी ओढ़ लिया है
ताकि तुम और निखर जाओ,
ताकि तुम साफ़-साफ़ नज़र आओ.

चाँद, कितने भोले हो तुम,
झील में छिपे बैठे हो,
इतना भी नहीं जानते 
कि तुम्हारा तो अक्स भी 
आसमान में साफ़ नज़र आता है.

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा परसों सोमवार (05-09-2016) को "शिक्षक करें विचार" (चर्चा अंक-2456) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन।
    शिक्षक दिवस की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 4 सितम्बर 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. चाँद की इन अठखेलियों का अलग ही अंदाज़ है ... सुंदर रहना है ...

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  4. बहुत ही सुन्दर एहसास के साथ आपने यह रचना लिखी है ....चाँद की सुन्दरता, वाह!!

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