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शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

१८५. गाँव

मुझे याद है 
पूस की कंपकंपाती सुबहों में 
मुंह अँधेरे उठ जाती थी दादी,
मुझे भी जगा देती थी
और  आँगन के कुँए से 
बाल्टी-भर पानी खींचकर 
उड़ेल देती थी मुझपर
मेरी तमाम ना-नुकर के बावजूद। 

तैयार होकर मैं 
घर की बगिया में जाता था,
जवाकुसुम के अधखिले फूल तोड़कर 
डलिया में सजा देता था. 

फिर हम गाँव की गलियों से 
मंदिर के लिए निकलते थे,
जहाँ मैं भी कर लेता था 
थोड़ी-बहुत पूजा,
चढ़ा देता था प्रतिमा पर 
जवाकुसुम का एक फूल.

अब नहीं रही दादी,
नहीं रहा कुंआ,
नहीं रही बगिया,
जवाकुसुम के अधखिले फूल 
और आधी-अधूरी अर्चना. 

अब नहीं रहीं 
वे पूस की सुबहें,
अब नहीं रहा 
वह मासूम-सा गाँव।

6 टिप्‍पणियां:

  1. यादों में बसा गाँव। सुन्दर अभिव्यक्ति।
    नए ब्लॉग पर आपका स्वागत है: https://doosariaawaz.wordpress.com/

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-10-2015) को "स्वयं की खोज" (चर्चा अंक-2118) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. अब ये केवल स्मृतियों में बाकी हैं...बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  4. गावं की बो मासूमियत अब कहीं नहीं है सब बदलता सा जा रहा है । बहुत सुंदर ।

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  5. बहुत याद आता है गांव का वो भोलापन... जो अब दूर दूर तक नहीं दिखाई देता।

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