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रविवार, 30 नवंबर 2014

१४६. पुराने खत

इस  बार तो हद कर दी तुमने,
अपने पुराने खत वापस मांग लिए,
पर ऐसी कई चीज़ें हैं,
जो न तुम मांग सकती हो,
न मैं दे सकता हूँ. 

भीड़ में नज़रें बचाकर 
मेरी ओर उठतीं तुम्हारी निगाहें,
डरी-डरी सी तुम्हारी मुस्कराहटें,
मेरी ओर बढ़ते तुम्हारे ठहरे-से कदम
तुम्हारे कपड़ों की सरसराहट,
तुम्हारी उँगलियों की छुअन -
सब कुछ अब भी मेरे पास है,
तुम्हारे खतों से ज़्यादा महफ़ूज़. 

इसलिए कहता हूँ,
क्या करोगी खत वापस लेकर,
इन्हें मेरे पास ही रहने दो,
उन तमाम यादों की तरह,
जो मैं चाहूँ भी 
तो तुम्हें लौटा नहीं सकता.

शनिवार, 15 नवंबर 2014

१४५. कविता से

कविता, आजकल मैं उदास हूँ,
बहुत दिन बीत गए,
पर तुम आई ही नहीं.

तुम्हें याद हैं न वे दिन,
जब तुम कभी भी आ जाती थी -
मुंह-अँधेरे, दोपहर, शाम - कभी भी,
मुझे सोते से भी उठा देती थी,
जब सारे ज़रुरी काम छोड़कर 
मुझे तुम्हारा साथ देना पड़ता था,
वरना तुम रूठ जाती थी,
मुझे भी तो बहुत भाता था
सब कुछ भूल कर तुम्हारे साथ हो लेना.

देखो, आज फिर से  
मैं कलम-क़ागज़ लेकर तैयार हूँ,
भूल भी जाओ गिले-शिकवे,
पहले की तरह एक बार फिर 
मेरे पास दौड़ी चली आओ.

मेरी उदासी दूर करो, कविता, 
तुम्हें पुराने दिनों का वास्ता.